सायद कुछ बदल गया हे अब .
पहले की तरह बात बात पर रूठती नहीं हूँ
बुरा लगता ह कोई कुछ बोले
तो खुद को समझा लेती हूँ..
घंटों अपनी खिड़कियों पर बैठे अपनी दुनिया में गुम हो जाती हूँ..
कुछ तो खो गया ह मेरे अंदर..
दिन रात उसको ढूँढ़ते रहती हूँ..
लेकिन पता नहीं किस संदूक में बंद ह .
मेरी मासूमियत और वो शिद्दत..
ढूढ़ते ढूँढ़ते थक गयी हूँ..
किसी को भरोसा करना तो जैसे गुनाह ही हो लगने लगा ह.
लगता ह कहीं ये भी मुझे सपने दिखा के
छोड़ के न चला जाये..
कहीं ये भी किसी दिन .
दिल तोड़ ना चला जाये ..
हसना भी सिख गयी हूँ ..
लेकिन खुस होने की वजह भूल गयी हूँ.
सायद यही ज़िन्दगी हे ..
जो में जीना सिख गयी हूँ ..
अनिंदिता रथ
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